Description
यह पुस्तक भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास-प्रक्रिया के सरलीकृत रूप से परिचय कराती है। अर्थशास्त्र में हम प्रायः विकास को वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन या उपभोगों के रूप में लोगों के आर्थिक जीवन में परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। भौतिक विकास का अध्ययन मुख्यतः एक प्रक्रिया के रूप में किया जाता है जिससे केवल आधुनिक औद्योगिक उत्पादन या संवर्धन का महत्व प्राप्त हुआ हो। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि किसी देश का विकास (या अवनिवास) अक्सर वस्तुओं और विजनों के परिणामों पर पड़ एक देश द्वारा दूसरे देश के आर्थिकीय शोषण पर निर्भर रहा है। परंतु इस पुस्तक में हमने बाह्य कारकों पर बल नहीं दिया है। हमने विकास-प्रक्रिया के लम्बे परिप्रेक्ष्य को लिया है। ऐसी प्रक्रिया जो किसी बाह्य कारक के संरक्षण या उससे प्रभावित होने से पहले आरम्भ हो। तो विकास की प्रक्रिया ऐसी स्थिति के बाद भी आगे बढ़े। अर्थात् वे ऐसे परिप्रेक्ष्य को समाप्ति के बाद स्वतंत्र रूप से जारी रख सकते हैं। अपने देश भारत का विकास इसी प्रकार हुआ है।
इस पुस्तक में सर्वप्रथम देश में विकास की शुरुआत को अर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्रों—कृषि, विनिर्माण और सेवा—के उदय के रूप में देखते हैं। हमने आर्थिक विकास को पृथक रूप में नहीं, बल्कि मानव-विकास की सामान्य अवस्थाओं, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और लोगों के जीवन की गुणवत्ताओं को व्यापक रूप से परिवर्तित करनावाले (आदत सहित) अन्य संकेतकों को भी शामिल किया है, के अग्नि के रूप में देखने की कोशिश की है।
प्रथम अध्याय में, हम अध्ययन करेंगे कि लोग वास्तव में विकास की अवधारणा को कैसे समझते हैं और इसका मापन कैसे किया जा सकता है? इस उद्देश्य के लिए कई मापदंड उपलब्ध हैं। हम देखेंगे कि विविध प्रकार के मापदंड में कुछ महत्वपूर्ण विभेदीकरण कैसे संभव हैं और विकास-प्रक्रिया अलग-अलग लोगों को कैसे अलग-अलग रूप में प्रभावित कर सकती है।
एक प्रक्रिया के रूप में विकास की शुरुआत संभवतः: अतीत में कुछ देखी हुई। विकास को हम जिस अर्थ में समझते हैं उस अर्थ में शायद किसी भी देश को विकसित नहीं कहा जा सकता। विकास-प्रक्रिया की शुरुआत संभवतः मानव-बस्तावली से हुई होगी, जब लोग अशांतिपूर्ण स्थिति से वन का या अधिक निश्चित निवास स्थानों में बड़े पैमाने पर प्रवेश नहीं होने के बावजूद रहने लगे। जब कृषि की शुरुआत हुई और कृत्रिम क्रियाओं का विकास आरम्भ हुआ, तब संभवतः अन्य प्राकृतिक उत्पादों, जैसे खनिज अस्थरक के निष्कर्षण की भी शुरुआत हुई। पत्थरों एवं अन्य खनिजों की प्राप्त करने की इस प्रक्रिया को ‘उत्कर्षण’ कहा जाता है।
मनुष्य ने औजार, अस्त्र-शस्त्र, बर्तन, महल का जाल और अन्य वस्त्र बनाने के लिए अघात उत्पादों, जैसे — पेड़ों से लकड़ी और कच्चे माल के रूप में उत्पादन से प्राप्त खनिजों का उपयोग करना सीखा। ये प्रथम मानव-निर्मित उत्पाद थे जिन्हें ‘शिल्पकृतियाँ’ कहा जाता है।
अघातशास्त्र कृषि (उत्पादन सहित), जिसमें फल, चावल, खजूर जैसे शुद्ध प्राकृतिक उत्पादों का संग्रहण, खेती या निष्कर्षण शामिल है, से अंतर करने के लिए शिल्पकृतियाँ बनाने की प्रक्रिया को विनिर्माण कहते हैं।
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